पदार्थान्वयभाषाः - हे दिवस ! यद्यपि द्यावापृथिवी मिथुन हमारा साक्षी है, प्रत्युत हा ! (इह) हमारे साथ सम्बन्ध रखनेवाले इस अन्तरिक्ष में (अस्य प्रथमस्य-अह्नः) इस प्रथम दिन अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में हुए इस विवाह को (कः) कौन (वेद) जानता है ? अर्थात् कोई नहीं जानता और (ईम्) उस गत विवाह को (कः) किसने (ददर्श) देखा है, तथा (कः) कौन ही (प्रवोचत्) सुनकर कह सके कि हाँ इनका विवाह हुआ, अर्थात् कोई नहीं, क्योंकि संसार प्रत्यक्षवादी है। जो कुछ प्रत्यक्ष देखता है, उसी को कहता है। (मित्रस्य) मित्र का और (वरुणस्य) वरुण का (धाम) स्थान (बृहत्) दूर है। (आहनः) हे हृदयपीडक पते ! (कत्) कैसे (उ) ही कोई उस स्थान को जाकर वहाँ के (नॄन्) मनुष्यों को (वीच्य) सम्मुख करके उनको (ब्रवः) हमारा यह दुःख-वृत्तान्त कहे। मित्र अर्थात् सूर्य तेरा पिता पूर्व दिशा में और वरुण मेरा पिता पश्चिम में है। इस प्रकार अत्यन्त दूर हम दोनों के इन पितृकुलों में जाकर जो इस दुःखवृत्तान्त को सुना सके, ऐसा हमें कोई नहीं दिखलाई पड़ता। दिन का पिता मित्र ‘सूर्य’ और रात्रि का पिता वरुण है ॥६॥
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुषों के विवाहसम्बन्ध दूर स्थान पर होना चाहिए, निकट स्थानवालों का विवाहसम्बन्ध उपयोगी नहीं होता। कभी संकट होने पर पितृकुलों को सहायक बनना चाहिए ॥६॥
समीक्षा (सायणभाष्य)-“मित्रस्य वरुणस्य मित्रावरुणयोर्बृहन्महद्धाम स्थानमहोरात्रं यदस्ति।” यहाँ “दिन और रात मित्रावरुण के धाम हैं” यह सायण का कथन उनकी अभीष्ट व्याख्या से विपरीत है, क्योंकि ‘दिन-रात’ स्थान नहीं हैं। दूसरे यहाँ इस प्रकार कहने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि यदि दिन-रात के पितृकुल मित्रावरुण के धाम माने जावें, तब तो यहाँ दिन-रात का अपने संवाद दुःखवृत्तान्त को सुनाना उचित ही है, जो हमारी अर्थयोजना के साथ सम्बन्ध रखता है ॥